कविता तेरे गाँव में.……उस ठंडी ठंडी छावं में………फिर कविताएँ लिखना चाहता हूँ मैं .... 8010034104
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020
शुक्रवार, 7 अगस्त 2015
काश मै भी एक कबूतर होता
कितना अच्छा होता
काश मै भी एक कबूतर होता
न वीजा न रेल का खर्चा होता
मै यूँ ही देश -विदेश आता जाता
काश मैं भी फुर से उड़ पाता
काश मै भी एक कबूतर होता

मै अखण्डता,एकता का प्रेम पत्र
कभी इस पार से उस पार ले जाता
कभी उस पार से इस पार लाता
काश मै भी एक कबूतर होता
जब चहाता भारत आ जाता
जब चहाता पाक चला जाता
ये सरहद, सीमाएँ कहाँ रोक पाती मुझें
अगर मै एक कबूतर होता
भाग-2
काश समाज में जात सम्प्रदाय न होता
काश कोई हिन्दू कोई मुसलमान न होता
फिर तो मेरा समाज प्रेम पंख लगा कर
शायद बहुत ऊँची उड़ान भर लेता
फिर इन्सान के हाथो, इन्सान का
खून कभी न होता
इन्सान भी कबूतर जैसा आजाद स्वतंत्र हो जाता
काश ये इन्सान अपने मन का गुलाम न होता
(समज में ये जात,सम्प्रदाय न होता )
(काश ये जात,सम्प्रदाय न होता)
हिंदुस्तान का न पाकिस्तान का होता
फिर तो मै भी सारे जहाँ का होता
जैसे वो कबूतर………
मेरी छत की मुंडेर पर बैठकर मेरा हो जाता
और उनके आँगन में बैठकर उनका सा हो जाता
(काश मै भी एक कबूतर होता )
उँगा
केवल कबूतर ही कहलाता है
काश मै भी इन्सान से जन्मा
केवल इन्सान ही कहलाता
इन्हे भी पढ़े। …
मंगलवार, 4 अगस्त 2015
मगर आज शायद रिमझिम में ……यूँही भीगेंगी ये चिड़िया रात भर
तिनका तिनका जोड़कर
जब अंडे भी गिरकर टूट गए
ये नन्ही सी बेचारी चिडया
उसने घर बनाया था पेड़ पर
मगर अचानक बरसात में गिर गया पेड़
और चिड़िया हो गई घर से बैघर
कहने को एक घौंसला ही था
सब कुछ उसका था उसमे मगर
था परिवार भी। … था संसार भी
वो चिड़िया का घर उजड़ गया मगर

जब अंडे भी गिरकर टूट गए
फिर चिड़िया रोइ तो होगी मगर
कैसे इसका दर्द समझूँ मै
कैसे इसकी भाषा में .... इससे बातें करूँ मगर
ये नन्ही सी बेचारी चिडया
अब कहाँ इन्साफ को अदालत लड़ेगी
कहाँ अपना गुस्सा जाहिर करेगी
बस कल से नया बसेरा बुनेगी
मगर आज शायद रिमझिम में ……यूँही भीगेंगी ये चिड़िया रात भर
है विधाता है इंद्र देव
इस गरीबन पे थोड़ी रहम कर
तू ये आँधी के झोके ना चला
बरसात चाहे तू खूब कर
सोमवार, 3 अगस्त 2015
मै बहुत दूर निकल जाऊँगा
अपना घर ये चमन खोकर
तुम्हारी आँखों में नमी देकर
अब चलना ही पड़ेगा प्यारो
तुम सब से जुड़ा होकर
एक यादो का समां देकर
तुम्हारी होठो पे गजल देकर
कुछ गीत यहाँ गा कर
मेरा सपना था..कि मै जाऊँगा
जन्नत को जमीं पे ला कर
मगर हो गया हूँ दफ़न देखो
केवल शब्दों की फसल बोकर
न दौलत न पूँजी देकर
न लवों पे हँसी देकर
हर इंसान गुजरता हे
सिर्फ आँखों में आंसू देकर
शनिवार, 1 अगस्त 2015
poem of eyes
देखना व्यर्थ है उन आँखों का
किसी का दुःख दर्द देखकर भी
जो भिगोए न पलकें
फिर क्या देखना है उन आँखों का
किसी का दुःख दर्द देखकर भी
जो भिगोए न पलकें
फिर क्या देखना है उन आँखों का
जो किसी के वास्ते
जो दुर्दशा देख कर भी
हृदय न पिंघले
हाँ
उन आँखों का देखना ही व्यर्थ है
जो देख कर भी
मन में कोई विचार न उगले
देखकर भी वो ऑंखें शायद कुछ भी न देख सकी
जो अन्तर न कर सकी
सही को सही न समझ सकी
गलत को गलत न समझ सकी ..........................
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गुरुवार, 30 जुलाई 2015
बरसात के दिन
जब बरसात होती हे
हजारों यादें आती हैं
स्कुल की
कॉलिज की
उस अभिमानी जवानी की
उस नटखट बचपन कहानी की
बड़ी यादें सताती हैं। …। जब बरसात होती हे
हजारो प्रेम कहानी
वो दादी और वो नानी
बहुत याद आती हे। ....... जब बरसात होती हे
नीम का एक पेड़ था हमारे आँगन में
जिस पर ची चिं करती थी चिड़िया
मस्त सावन में
मगर बरसात के मौसम में जब टुटा था वो नीम का पेड़
और टूट गए थे हजारो सपने
उस चिड़िया के वो घर अपने
उस नन्ही चिड़िया पर आई थी वो क़यामत
बड़ी याद आती हे। ………………। जब बरसात आती हे
बड़ी यादें सताती हैं। ................ जब बरसात होती हे
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