बुधवार, 21 जुलाई 2021

चूम गये जो फाँसी का फंदा

 मर गये प्रेम के सच्चे किस्से अब  क्या जिन्दी कोई पहचान नही 

इंसानो की भीड मे क्यौ अब दिखता कोई इन्सान नही 


चूम गये जो फाँसी  का फंदा जिन्होने झोक दिया जीवन सारा 

अब वो लक्ष्मीबाई जेसी नार नही वो भगतसिंह जेसा प्यार नही


देख कितना बेरहमी से मारा उसको मगर दिल किसी का पसीजा ही नही 
अब तमासा देखते हैं लोग खडे खडे मगर इन्सा के हक मे बोलता इन्सान नही 


क्या आज युवा कायर है क्यौ इसके लहू में उठता उबाल नही
चाहे चौराहे पर लुट जाए अमन क्यौ भरता ये हुंकार नही 


स्वाभिमानी का है मान यंहा पर कायर का कँही सम्मान नही
जिन्दगी होती हे रणभुमि  जिन्दगी कोई आसान नहीं 


कल फिर जन्मेंगे आजाद भगत मैं कभी करता इन्कार नहीं 
पर आज के युवा तेरे कायर होने से ये मुल्क तेरा महफुज नही 


रिस्ते टुट टुट कर हो गए खंडर क्यो एक दूजे पर एतबार नहीं 
एकता अखण्डता से बनता है मुल्क पर एसी तो आज बहार नही 



गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

तेरे गाँव में

कविता तेरे गाँव में 

 ठंडी ठंडी छाँव में


 फिर कविताएं लिखना चाहता हूँ मैं

 सरसो के हरे भरे खेत में 

 झुककर जब साग तोडती थी तुम

 तुम्हारे उस सुन्दर दृश्य को 

 आज फिर देखना चाहता हूँ मैं 

 मई के गर्म महिने में

 करवे में भरा वो कुए का जल

 फिर ओक बनाकर पीना चाहता हूँ मैं

 कुलर एसी फेन से

 शहर के मॉर्डन मेन से

 मैं तो बिल्कुल ऊब गया कविता

 फिर तेरे गाँव मैं आकर 

नीम के निचे खाट बिछाकर 

मक्का की रोटी पर नुनी घी लगाकर 

फिर गुड छाछ से खाना चाहता हूँ मैं 

 मेरे भारत की भारतयता 

दिखती है केवल गाँव में 

 कविता की मांग में चमकता हे सिन्दूर 

और बजती हे पायल पाँव में 

 कविता तेरी पायल की उस छन छन को 

आज फिर सुनना चाहता हूँ मैं

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

काश मै भी एक कबूतर होता

कितना अच्छा होता 
काश मै भी एक कबूतर होता 

न वीजा  न रेल का खर्चा होता 
मै यूँ ही देश -विदेश आता जाता 
काश मैं भी फुर से उड़ पाता 
काश मै भी  एक कबूतर होता 
मै अखण्डता,एकता का प्रेम पत्र 
कभी इस पार से उस पार ले जाता 
कभी उस पार से इस पार लाता 
काश मै भी एक कबूतर होता 

जब चहाता भारत आ जाता 
जब चहाता पाक चला जाता 
ये सरहद, सीमाएँ कहाँ रोक पाती  मुझें 
अगर मै एक कबूतर होता
hindi kavita
भाग-2 


काश    समाज में जात सम्प्रदाय न होता 
काश कोई हिन्दू कोई मुसलमान न होता 
फिर तो मेरा  समाज प्रेम पंख लगा कर 
शायद बहुत ऊँची उड़ान भर लेता 


फिर इन्सान के हाथो,  इन्सान का
 खून कभी न होता 
  इन्सान भी कबूतर जैसा आजाद स्वतंत्र हो जाता 
काश ये  इन्सान अपने मन का गुलाम न होता 
(समज में ये  जात,सम्प्रदाय न होता )

(काश ये जात,सम्प्रदाय न होता) 
हिंदुस्तान का न पाकिस्तान का होता 
फिर तो  मै भी सारे जहाँ का होता 
जैसे वो कबूतर……… 
मेरी छत की मुंडेर पर बैठकर मेरा हो जाता
और उनके आँगन में बैठकर उनका  सा हो जाता  
(काश मै भी एक कबूतर होता ) 
उँगा 
केवल कबूतर ही कहलाता है 
काश मै भी  इन्सान  से जन्मा 
केवल इन्सान ही कहलाता

इन्हे भी पढ़े। … 




मंगलवार, 4 अगस्त 2015

मगर आज शायद रिमझिम में ……यूँही भीगेंगी ये चिड़िया रात भर

तिनका तिनका जोड़कर 
उसने   घर बनाया था  पेड़   पर 
मगर अचानक बरसात में गिर गया पेड़ 
और चिड़िया हो गई घर से बैघर 

कहने को एक  घौंसला ही था
 सब कुछ उसका था उसमे मगर 
था परिवार   भी। … था संसार भी 
वो चिड़िया का घर उजड़ गया मगर



जब अंडे भी गिरकर टूट गए 
फिर चिड़िया रोइ  तो होगी मगर 
कैसे इसका दर्द  समझूँ मै 
कैसे इसकी भाषा में .... इससे बातें करूँ मगर 



ये नन्ही सी बेचारी चिडया 
अब कहाँ इन्साफ  को अदालत लड़ेगी 
कहाँ अपना गुस्सा जाहिर करेगी 
बस कल से नया बसेरा बुनेगी 
 मगर आज शायद रिमझिम में   ……यूँही भीगेंगी  ये चिड़िया रात भर 

है विधाता   है इंद्र देव
 इस गरीबन  पे थोड़ी रहम कर 
तू ये आँधी के झोके ना चला 
बरसात चाहे तू खूब कर 

सोमवार, 3 अगस्त 2015

मै बहुत दूर निकल जाऊँगा

अपना घर ये चमन  खोकर 
तुम्हारी आँखों में नमी देकर 
अब चलना ही पड़ेगा प्यारो 
तुम  सब  से   जुड़ा  होकर 

एक   यादो  का समां  देकर 
तुम्हारी होठो पे गजल देकर 
कुछ  गीत    यहाँ  गा  कर 

मेरा सपना था..कि मै जाऊँगा 
जन्नत को जमीं  पे  ला   कर 
मगर हो  गया हूँ  दफ़न देखो 
केवल शब्दों  की फसल बोकर 

न दौलत न पूँजी देकर 
न लवों पे  हँसी   देकर 
हर इंसान  गुजरता   हे 
सिर्फ आँखों में आंसू देकर 



शनिवार, 1 अगस्त 2015

poem of eyes

देखना व्यर्थ है  उन आँखों का
किसी का दुःख दर्द  देखकर  भी
 जो भिगोए न पलकें

फिर क्या देखना है  उन आँखों का                                                                                    
जो किसी के  वास्ते                                              
एक आंसूं भी न छलके                                                                                                                
अरे क्या देखना उन आँखो का 
जो दुर्दशा देख कर भी 
हृदय न पिंघले 

हाँ 
उन आँखों का देखना ही व्यर्थ है 
जो देख कर भी 
मन में कोई विचार न उगले 

देखकर भी वो ऑंखें  शायद कुछ भी न देख सकी 
जो अन्तर  न कर सकी 
सही को सही न समझ सकी 
गलत को गलत न समझ सकी ..........................

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गुरुवार, 30 जुलाई 2015

बरसात के दिन

जब बरसात होती हे 
हजारों यादें आती हैं
स्कुल की  
कॉलिज की 
उस अभिमानी जवानी की 
उस नटखट बचपन   कहानी  की 
बड़ी यादें सताती हैं। …। जब बरसात होती हे  
हजारो प्रेम कहानी 
वो दादी  और वो नानी 
बहुत याद आती हे। ....... जब बरसात होती हे 
      
नीम का एक पेड़ था  हमारे आँगन में 
जिस पर ची चिं  करती थी चिड़िया 
मस्त सावन में 
मगर बरसात के मौसम में  जब   टुटा था वो नीम का पेड़ 
 और टूट गए थे हजारो सपने 
 उस चिड़िया के वो घर  अपने 
           
उस नन्ही चिड़िया  पर आई थी वो क़यामत 
बड़ी याद आती हे। ………………। जब बरसात आती हे 
बड़ी यादें सताती  हैं। ................ जब बरसात होती हे 
       

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